विपरीत-प्रत्यंगिरा महा-विद्या स्तोत्र
शत्रु की प्रबल से प्रबलतम तांत्रिक क्रियाओं को वापिस लौटने वाली एवं रक्षा करने वाली ये दिव्य शक्ति है I परप्रयोग को नाश करने के लिए, शत्रुओं के किये-करायों को नाश करने के लिए इस तन्त्र का प्रयोग किया जाता है I एक तन्त्र सिद्ध एवं चलन क्रियाओं को जानने वाला तांत्रिक ही इस विद्या का प्रयोग कर सकता है क्योंकि इस विद्या को प्रयोग करने से पूर्व शत्रुओं के तन्त्र शक्ति, उसकी प्रकृति एवं उसकी मारक क्षमता का ज्ञान होना अति आवश्यक है क्योंकि साधारण युद्ध में भी शत्रु की गति और शक्ति को न पहचानने वाला, उसको कम आंकने वाला हमेशा मारा जाता है I फिर यह तो तरंगों से होने वाला अदृश्य युद्ध है I
वास्तव में प्रत्यंगिरा स्वयं में शक्ति न होकर नारायण, रूद्र, कृत्य, भद्रकाली आदि महा शक्तियों की संवाहक है I जैसे तारें स्वयं में विद्युत् न होकर करंट की सम्वाहिकाएँ हैं I
बहुत से व्यक्ति प्रेत, यक्ष, राक्षस, दानव, दैत्य, मरी-मसान, शंकिनी, डंकिनी बाधाओं तथा दूसरे के द्वारा या अपने द्वारा किए गए प्रयोगों के फल-स्वरुप पीड़ित रहते हैं। इन सबकी शान्ति हेतु यहाँ भैरव-तन्त्रोक्त ‘विपरीत-प्रत्यंगिरा’ की विधि प्रस्तुत है।
पीड़ित व्यक्ति या प्रयोग-कर्ता गेरुवा लंगोट पहन कर एक कच्चा बिल्व-फल अपने तथा एक पीड़ित व्यक्ति के पास रखे। रात्रि में सोने से पूर्व पीड़ित व्यक्ति की चारपाई पर चारों ओर इत्र का फाहा लगाए। रात्रि को १०८ या कम से कम १५ पाठ सात दिन तक करे। नित्य गो-घृत या घृत-खाण्ड (लाल शक्कर), घृत, पक्वान्न, बिल्व-पत्र, दूर्वा, जाउरि (गुड़ की खीर) से हवन करे। सात ब्राह्मणों या कुमारियों को भोजन प्रतिदिन करावे। यदि भोजन कराने में असमर्थ हो, तो कुमारियों को थोड़े बताशे तथा दक्षिणा प्रतिदिन दे। बिल्व-फल जब काला पड़ जाये, तो दूसरा हरा बिल्व-फल ले ले। फल को लाल कपड़े में लपेटकर रखे।
II ध्यानम् II
नानारत्नार्चिराक्रान्तं वृक्षाम्भ: स्त्रव??र्युतम् I
व्याघ्रादिपशुभिर्व्याप्तं सानुयुक्तं गिरीस्मरेत् II
मत्स्यकूर्मादिबीजाढ्यं नवरत्न समान्वितम् I
घनच्छायां सकल्लोलम कूपारं विचिन्तयेत् II
ज्वालावलीसमाक्रान्तं जग स्त्री तयमद्भुतम् I
पीतवर्णं महावह्निं संस्मरेच्छत्रुशान्तये II
त्वरा समुत्थरावौघमलिनं रुद्धभूविदम् I
पवनं संस्मरेद्विश्व जीवनं प्राणरूपत: II
नदी पर्वत वृक्षादिकालिताग्रास संकुला I
आधारभूता जगतो ध्येया पृथ्वीह मंत्रिणा II
सूर्यादिग्रह नक्षत्र कालचक्र समन्विताम् I
निर्मलं गगनं ध्यायेत् प्राणिनामाश्रयं पदम् II
“वक्र-तुण्ड महा-काय, कोटि-सूर्य-सम-प्रभं! अविघ्नं कुरु मे देव! सर्व-कार्येषु सर्वदा।।”
उक्त श्लोक को पढ़कर भगवान् गणेश को नमन करे। फिर पाठ करे-
ब्राह्मी मां पूर्चतः पातु, वह्नौ नारायणी तथा। माहेश्वरी च दक्षिणे, नैऋत्यां चण्डिकाऽवतु।।
पश्चिमेऽवतु कौमारी, वायव्ये चापराजिता। वाराही चोत्तरे पातु, ईशाने नारसिंहिका।।
प्रभाते भैरवी पातु, मध्याह्ने योगिनी क्रमात्। सायं मां वटुकः पातु, अर्ध-रात्रौ शिवोऽवतु।।
निशान्ते सर्वगा पातु, सर्वदा चक्र-नायिका।
ॐ क्षौं ॐ ॐ ॐ हं हं हं यां रां लां खां रां रां क्षां ॐ ऐं ॐ ह्रीं रां रां मम रक्षां कुरु ॐ ह्रां ह्रं ॐ सः ह्रं ॐ क्ष्रीं रां रां रां यां सां ॐ वं यं रक्षां कुरु कुरु।
ॐ नमो विपरित-प्रत्यंगिरायै विद्या-राज्ञो त्रैलोक्य-वशंकरी तुष्टि-पुष्टि-करी, सर्व-पीड़ापहारिणी, सर्व-रक्षा-करी, सर्व-भय-विनाशिनी। सर्व-मंगल-मंगला-शिवा सर्वार्थ-साधिनी। वेदना पर-शस्त्रास्त्र-भेदिनी, स्फोटिनी, पर-तन्त्र पर-मन्त्र विष-चूर्ण सर्व-प्रयोगादीनामभ्युपासितं, यत् कृतं कारितं वा, तन्मस्तक-पातिनी, सर्व-हिंसाऽऽकर्षिणी, अहितानां च नाशिनी दुष्ट-सत्वानां नाशिनी। यः करोति यत्-किञ्चित् करिष्यति निरुपकं कारयति। तन्नाशयति, यत् कर्मणा मनसा वाचा, देवासुर-राक्षसाः तिर्यक् प्रेत-हिंसका, विरुपकं कुर्वन्ति, मम मन्त्र, यन्त्र, विष-चूर्ण, सर्व-प्रयोगादीनात्म-हस्तेन, पर-हस्तेन। यः करोति करिष्यति कारियिष्यति वा, तानि सर्वाणि, अन्येषां निरुपकानां तस्मै च निवर्तय पतन्ति, तस्मस्तकोपरि।
।।भैरव-तन्त्रान्तर्गत विपरित-प्रत्यंगिरा महा-विद्या स्तोत्रम्।।